1. प्रोद्योगिकी का प्रभाव: Impact of Technology
परिचय
आगे बढते रहने के लिये प्रौद्योगिकी बहुत ही महत्वपूर्ण है। आज कल
प्रगमन बढवार, विकास और लगातार सुधार का अर्थ है। यदि समाज और मनुष्य को एक समान
एक परत से किसी वरिष्ठ परत की ओर चलना है तो प्रौद्योगिकी का उपयोग करना बहुत ही
ज़रूरी है। मानव हमेशा अपने जीवन को सुखमय बनाने का प्रयास करता है। मनुष्य अपने
कार्य और सोच के प्रति परिवर्तन लाकर उसे नया बनाना चाहता है। मानव जीवन के दो
पहलू है जो हर वक़्त बदलते रहता है।
·
समाज
·
प्रौद्योगिकि
प्रौद्योगिकी उपकरणों और तकनीकों का आविष्कार है। प्रौद्योगिकीय
परिवर्तन एक तकनीक का आविष्कार,
एक तकनीक में सुधार की निरंतर
प्रक्रिया है और इस उद्योग या समाज में अपनी प्रसार है। सोसायटी सामाजिक संबंधों
के माध्यम से लोगों का समूह है। सामाजिक परिवर्तन सामाजिक व्यवस्था की प्रगति या
परिवर्तन है। शुरुआत से ही प्रौद्योगिकी से हमारे जीवन में एक कारक था, यह वास्तव में हमारे
अस्तित्व को आकार करने लगे जब यह औद्योगिक क्रांति तक ही था। प्रौद्योगिकी समाज के
इतिहास में एक जटिल कारक में एक चर रहा है। वर्तमान दिन में, समाज में
प्रौद्योगिकी एक वरदान या अभिशाप है। प्रौद्योगिकी के निर्माण और सुधार के लिए एक
अच्छा तरीका है और बुरी तरह से दोनों में देखा जाता है। प्रौद्योगिकी के उपयोग के
कई मायनों में और दुनिया भर के कई स्थानों में इस्तेमाल किया जाता है, क्योंकि यह एक
सकारात्मक रास्ते में देखा जाता है। मशीनों रोगियों की जान बचाने के लिए
प्रौद्योगिकी अस्पतालों में प्रयोग किया जाता है। प्रौद्योगिकि ने मनुश्य को इस
दुनिया और अंतरिक्ष की भी जानाकारी दी है।
प्रौद्योगिकी के
प्रभाव का गौरव
प्रौद्योगिकी के प्रभाव का तीन भागों में विभाजित किया जा सकता
है।. वे इस प्रकार हैं: -
·
सामाजिक निहितार्थ
·
आर्थिक निहितार्थ
·
संयंत्र स्तर में
परिवर्तन
·
शैक्षिक प्रभाव
सामाजिक निहितार्थ
व्यापार आदमी नई खोजों वस्तुओं और सेवाओं में परिवर्तित हो जाने की
उम्मीद में मदद करता है। व्यापार संगठनों के प्रबंधकों को एक साथ आवश्यक संसाधन
लाने के लिए और उपयोगी उत्पादों में उन्हें बदलने के लिए नई खोजों पर काम करते
हैं। व्यापार माल और लोगों के लिए आवश्यक हैं जो सेवाओं को बनाने और सामाजिक विकास
में मदद करते है। प्रौद्योगिकि के वजह से अनेक तरह के वस्तु और सेवाओं का उत्पादन
किया जा सकता है और उसे मनुश्य तक पहुनचाया जा रहा है जिस्के इस्तेमाल से लोगो की 'रहने के मानक बढ
जाता है। क्योंकि तकनीकी युग है लोगो के उम्मीदें भी बढ जाती है। वे सिर्फ पुराने
चीज़े नहीं बल्कि नये चीज़ के इन्तेज़ार में रेह्ते है। अनुसंधान और विकास में
बड़ा निवेश (आर एंड डी) की अवश्यक्ता हो गयी है जिसके वजह से व्यापारी के व्यय भी
बढ गया है। प्रौद्योगिकी जटिलता पैदा करता है और जीवन को कठिन बनाता है।
प्रौद्योगिकि के कारण अनेक वस्तुऔ क उत्पदन बहुत ही जल्दी हो जाता है।
प्रौद्योगिकी स्थिति मतभेद बनाया और सामाजिक मतभेद को हटा दिया गया है।
प्रौद्योगिकी संचार और जीवन के अन्य पहलुओं के मामले में एक नया चलन बन गया है।
आर्थिक निहितार्थ
प्रौद्योगिकी उत्पादकता वृद्धि में योगदान दिया ह। प्रौद्योगिकी ने
उत्पादन के तरीके बदल गया है। यह कुशल श्रम की आवश्यकता बढ़ गई है और उत्पादन का
समय कम हो गया है। हालांकि यह संगठनों के उत्पादन की लागत बढ़ गई है। संगठनों की
अनुसंधान एवं विकास पर खर्च करने की जरूरत बढ गयी है जिसके वजह से सन्स्थान के
वृद्धि की वजह से खर्च भी बढ गया है। मानक कार्यालय लैपटॉप और स्मार्ट फोन के
अलावा, संगठनों सुचारू रूप से चलाने के संचालन रखने के लिए सूचना प्रणाली, कस्टम सॉफ्टवेयर या
विशेष प्रौद्योगिकी उपकरणों को लागू करने। प्रौद्योगिकी में प्रगति के लिए एक
कार्य को पूरा करने के लिए आवश्यक समय कम, या कुछ मामलों में एक व्यापार
प्रक्रिया या नौकरी समारोह के लिए की आवश्यकता को समाप्त करने की क्षमता है। काफी
कंपनी के संचालन को प्रभावित कर सकते हैं जो एक संगठन के भीतर प्रौद्योगिकी की
वृद्धि हुई उत्पादकता उन्नयन। कंप्यूटर और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में प्रगति के
लिए एक व्यापार की दक्षता में सुधार होगा। संगठनात्मक संरचना, विभागों के
पुनर्गठन की स्थिति आवश्यकताओं को संशोधित करने या नौकरियों जोड़ने और हटाने के
द्वारा बदला जा रहा है। यह उद्योग मानक बन जाता है अगर नियोक्ता अक्सर एक नौकरी की
आवश्यकता के रूप में नए सॉफ्टवेयर प्रोग्राम पर प्रशिक्षण या उपकरण की आवश्यकता
होती है। वेब आधारित व्यवसायों प्रौद्योगिकी के नए क्षेत्रों में विशेषज्ञता के
लिए नए विभाग या जॉब जोड़ सकते हैं। कुछ अवसरों पर, प्रौद्योगिकी के नए रूपों को लागू
करने में कुछ उद्योगों में अप्रचलित कुछ काम कर्तव्यों प्रस्तुत करना हो सकता है।
शैक्षिक प्रभाव
आज कल छात्र मोबाइल आदि उपकरणों का इस्तेमाल करते है जिसके माध्यम
से वे अनेक कार्य कर पाते है। प्रौद्योगिकि का उप्योग शिक्षा प्राप्ति में भी किया
जाता है। इस वजह से विद्यालय में अध्यापक की ज़रुरत कम होती जा रही है क्युन्कि
कक्षाओं में वीडियो और अन्य माध्यमों का उप्योग हो रहा है। आज कल कोइ भी व्यक्ती
कही भी बैठकर पढ सकता है यदि उसके पास एक कंप्यूटर और इंटरनेट कनेक्शन हो।
प्रौद्योगिकी कुछ शिक्षकों को प्रभावित कर सकते हैं।
1.
वे कंप्यूटर या
अन्य कार्यक्रमों का उपयोग करने के लिए अनुभवहीन हैं के रूप में शिक्षकों के ते
आत्मविश्वास कम कर देता है।
2.
शिक्षकों को अपने
कौशल और कर्मचारियों के विकास और प्रौद्योगिकी प्रशिक्षण के साथ शिक्षण प्रदर्शनों
की सूची पर निर्माण कर सकते हैं।
3.
शिक्षक वृद्धि हुई
कंप्यूटर अनुभव के साथ शिक्षा में आत्मविश्वास और प्रभावशीलता हासिल करेंगे।
प्रौद्योगिकी के छात्रों लाभ क्यों
1.
शिक्षकों
प्रौद्योगिकी का उपयोग में एक सकारात्मक रवैया है, वे अक्सर के रूप में अच्छी तरह से
प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में छात्रों के हित उत्तेजित।
2.
छात्रों को भविष्य
में उनके इस्तेमाल कौशल को जोड़ना होगा जो प्रौद्योगिकी से जुड़े हुए हैं कि कौशल
सीखने में सक्षम हैं।
प्रौद्योगिकी यह भविष्य में जरूरी होगा कि कौशल विकसित करने के लिए
छात्रों को सक्षम कर सकते हैं। कक्षा में प्रौद्योगिकी के सफल प्रत्यारोपण के साथ, छात्रों वे से लाभ
होगा कि एक आधुनिक और व्यापक शिक्षा प्राप्त करने में सक्षम हैं। उनकी शिक्षा उनकी
पीढ़ी और हमारे समाज के अंदर बढ़ रहा है उस दिशा के लिए अधिक अनुकूल होगा।
समापन
प्रौद्योगिकी के अपने गुण और दोष है, लेकिन वर्तमान दिन में प्रौद्योगिकी
के बिना कोई विकास नहीं हो सकता। आर्थिक, सामाजिक और मानव विकास तकनीकी प्रगति
पर निर्भर करता है। आदमी प्रौद्योगिकी की मदद से अपने जीवन को आसान और बेहतर बना
सकते हैं, संगठनों तकनीक के साथ अधिक से अधिक लाभ कमा सकते हैं और आर्थिक
समृद्धि के लिए नेतृत्व कर सकते हैं। अन्त में आर्थर सी. क्लार्क द्वारा कही गयी
बात दोहराना चाहुग
कोइ भी पर्याप्त रूप से उन्नत प्रौद्योगिकी को जादू से कम नहीं मानना चाहिऐ।
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2. भारत में लिंग असमानता: Gender inequality in india
हम 21वीं शताब्दी के भारतीय होने पर गर्व करते हैं जो एक बेटा पैदा
होने पर खुशी का जश्न मनाते हैं और यदि एक बेटी का जन्म हो जाये तो शान्त हो जाते
हैं यहाँ तक कि कोई भी जश्न नहीं मनाने का नियम बनाया गया हैं। लड़के के लिये इतना
ज्यादा प्यार कि लड़कों के जन्म की चाह में हम प्राचीन काल से ही लड़कियों को जन्म
के समय या जन्म से पहले ही मारते आ रहे हैं, यदि
सौभाग्य से वो नहीं मारी जाती तो हम जीवनभर उनके साथ भेदभाव के अनेक तरीके ढूँढ
लेते हैं। हांलाकि,
हमारे धार्मिक विचार औरत को देवी
का स्वरुप मानते हैं लेकिन हम उसे एक इंसान के रुप में पहचानने से ही मना कर देते
हैं। हम देवी की पूजा करते हैं, पर
लड़कियों का शोषण करते हैं। जहाँ तक कि महिलाओं के संबंध में हमारे दृष्टिकोण का
सवाल हैं तो हम दोहरे-मानकों का एक ऐसा समाज हैं जहाँ हमारे विचार और उपदेश हमारे
कार्यों से अलग हैं। चलों लिंग असमानता की घटना को समझने का प्रयास करते हैं और
कुछ समाधानों खोजते हैं।
लैंगिक असमानता की परिभाषा और संकल्पना
‘लिंग’ सामाजिक-सांस्कृतिक शब्द हैं, सामाजिक
परिभाषा से संबंधित करते हुये समाज में ‘पुरुषों’ और ‘महिलाओं’ के कार्यों और व्यवहारों को परिभाषित करता हैं, जबकि, 'सेक्स' शब्द ‘आदमी’ और ‘औरत’ को परिभाषित करता है जो एक जैविक और शारीरिक घटना है। अपने
सामाजिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पहलुओं में, लिंग पुरुष और महिलाओं के बीच शक्ति के कार्य के संबंध हैं
जहाँ पुरुष को महिला से श्रेंष्ठ माना जाता हैं। इस तरह, ‘लिंग’ को मानव
निर्मित सिद्धान्त समझना चाहिये, जबकि ‘सेक्स’ मानव की
प्राकृतिक या जैविक विशेषता हैं।
लिंग
असमानता को सामान्य शब्दों में इस तरह परिभाषित किया जा सकता हैं कि, लैंगिक आधार पर महिलाओं के साथ भेदभाव। समाज में परम्परागत
रुप से महिलाओं को कमजोर जाति-वर्ग के रुप में माना जाता हैं। वह पुरुषों की एक
अधीनस्थ स्थिति में होती है। वो घर और समाज दोनों में शोषित, अपमानित, अक्रमित और
भेद-भाव से पीड़ित होती हैं। महिलाओं के खिलाफ भेदभाव का ये अजीब प्रकार दुनिया
में हर जगह प्रचलित है और भारतीय समाज में तो बहुत अधिक है।
भारत में लैंगिक असमानता के कारण और प्रकार
भारतीय
समाज में लिंग असमानता का मूल कारण इसकी पितृसत्तात्मक व्यवस्था में निहित है।
प्रसिद्ध समाजशास्त्री सिल्विया वाल्बे के अनुसार, “पितृसत्तात्मकता
सामाजिक संरचना की ऐसी प्रक्रिया और व्यवस्था हैं, जिसमें
आदमी औरत पर अपना प्रभुत्व जमाता हैं, उसका दमन
करता हैं और उसका शोषण करता हैं।” महिलाओं का
शोषण भारतीय समाज की सदियों पुरानी सांस्कृतिक घटना है। पितृसत्तात्मकता व्यवस्था
ने अपनी वैधता और स्वीकृति हमारे धार्मिक विश्वासों, चाहे वो
हिन्दू, मुस्लिम या किसी अन्य धर्म से ही क्यों
न हों, से प्राप्त की हैं।
उदाहरण के
लिये, प्राचीन भारतीय हिन्दू कानून के
निर्माता मनु के अनुसार, “ऐसा माना
जाता हैं कि औरत को अपने बाल्यकाल में पिता के अधीन, शादी के
बाद पति के अधीन और अपनी वृद्धावस्था या विधवा होने के बाद अपने पुत्र के अधीन
रहना चाहिये। किसी भी परिस्थिति में उसे खुद को स्वतंत्र रहने की अनुमति नहीं हैं।”
मनु द्वारा
महिलाओं के लिये ऊपर वर्णित स्थिति आज के आधुनिक समाज की संरचना में भी मान्य हैं।
यदि यहाँ-वहाँ के कुछ अपवादों को छोड़ दे तो महिलाओं को घर में या घर के बाहर समाज
या दुनिया में स्वतंत्रतापूर्वक निर्णय लेने की कोई शक्ति नहीं मिली हैं।
मुस्लिमों
में भी समान स्थिति हैं और वहाँ भी भेदभाव या परतंत्रता के लिए मंजूरी धार्मिक
ग्रंथों और इस्लामी परंपराओं द्वारा प्रदान की जाती है। इसीस तरह अन्य धार्मिक
मान्याताओं में भी महिलाओं के साथ एक ही प्रकार से या अलग तरीके से भेदभाव हो रहा
हैं।
हमारे समाज
में लैंगिक असमानता की दुर्भाग्यपूर्ण बात भी महिलाएँ है, प्रचलित सामाजिक-सांस्कृतिक स्थितियों के कारण उन्होंने
पुरुषों के अधीन अपनी स्थिति को स्वीकार कर लिया हैं और वो भी इस समान
पितृसत्तात्मक व्यवस्था का अंग हैं।
महिलाओं के
समाज में निचला स्तर होने के कुछ कारणों में से अत्यधिक गरीबी और शिक्षा की कमी भी
हैं। गरीबी और शिक्षा की कमी के कारण बहुत सी महिलाएं कम वेतन पर घरेलू कार्य करने, संगठित वैश्यावृति का कार्य करने या प्रवासी मजदूरों के रुप
में कार्य करने के लिये मजबूर होती हैं। महिलाओं को न केवल असमान वेतन या अधिक
कार्य कराया जाता हैं बल्कि उनके लिये कम कौशल की नौकरियाँ पेश की जाती हैं जिनका
वेतनमान बहुत कम होता हैं। यह लिंग के आधार पर असमानता का एक प्रमुख रूप बन गया
है।
लड़की को
बचपन से शिक्षित करना अभी भी एक बुरा निवेश माना जाता हैं क्योंकि एक दिन उसकी
शादी होगी और उसे पिता के घर को छोड़कर दूसरे घर जाना पड़ेगा। इसलिये, अच्छी शिक्षा के अभाव में वर्तमान में नौकरियों कौशल माँग की
शर्तों को पूरा करने में असक्षम हो जाती हैं, वहीं
प्रत्येक साल हाई स्कूल और इंटर मीडिएट में लड़कियों का परिणाम लड़कों से अच्छा
होता हैं। ये प्रदर्शित करता हैं कि 12वीं कक्षा
के बाद माता-पिता लड़कियों की शिक्षा पर ज्यादा खर्च नहीं करते जिससे कि वो नौकरी
प्राप्त करने के क्षेत्र में पिछड़ रही हैं।
सिर्फ
शिक्षा के क्षेत्र में ही नहीं, परिवार, खाना की आदतों के मामले में भी, वो केवल
लड़का ही होता जिसे सभी प्रकार का पोष्टिक और स्वादिष्ट पसंदिदा भोजन प्राप्त होता
हैं जबकि लड़की को वो सभी चीजें खाने को मिलती हैं जो परिवार के पुरुष खाना खाने
के बाद बचा देते हैं जो दोनों ही रुपों गुणवत्ता और पोष्टिकता में बहुत ही घटिया
किस्म का होता हैं और यही बाद के वर्षों में उसकी खराब सेहत का प्रमुख कारण बनता
हैं। महिलाओं में रक्त की कमी के कारण होने वाली बीमारी एनिमीया (अरक्त्ता) और
बच्चों को जन्म देने के समय होने वाली परेशानियों का प्रमुख कारण घटिया किस्म का
खाना होता हैं जो इन्हें अपने पिता के घर और ससुराल दोनों जगह मिलता हैं इसके साथ
ही असह्याय काम का बोझ जिसे वो बचपन से ढोती आ रही हैं।
अतः
उपर्युक्त विवेचन के आझार पर कहा जा सकता हैं कि महिलाओं के साथ असमानता और भेदभाव
का व्यवहार समाज में,
घर में, और घर के बाहर विभिन्न स्तरों पर किया जाता हैं।
भारत में लैंगिक असमानता का महत्वपूर्ण डेटा:
वैश्विक
सूचकांक:
लैंगिक
असमानता भारत की विभिन्न वैश्विक लिंग सूचकांकों में खराब रैंकिंग को प्रदर्शित
करती हैं।
- यूएनडीपी के लिंग असमानता सूचकांक - 2014: 152 देशों की सूची में भारत की स्थिति 127वें स्थान पर हैं।
सार्क देशों से संबंधित देशों में केवल अफगानिस्तान हि इन देशों की सूची में
ऊपर हैं।
- विश्व आर्थिक मंच के वैश्विक लिंग अंतराल सूचकांक - 2014: विश्व के 142 देशों की सूची में
भारत 114वें
स्थान पर हैं। ये सूचकांक में चार प्रमुख क्षेत्रों में लैंगिक अंतर की जाँच
करता हैं:
- आर्थिक भागीदारी और अवसर।
- शैक्षिक उपलब्धियाँ।
- स्वास्थ्य और जीवन प्रत्याशा।
- राजनीतिक सशक्तिकरण।
इन सभी
सूचकाकों के अन्तर्गत भारत की स्थिति इस प्रकार हैं:
- आर्थिक भागीदारी और अवसर –
134।
- शैक्षिक उपलब्धियाँ –
126।
- स्वास्थ्य और जीवन प्रत्याशा –
141।
- राजनीतिक सशक्तिकरण –
15।
ये दोनों
वैश्विक सूचकांक लिंग समानता के क्षेत्र में भारतकी खेद जनक स्थिति को प्रदर्शित
करते हैं। बस केवल राजनीतिक सशक्तिकरण के क्षेत्र में भारत की कार्य सराहनीय हैं
लेकिन अन्य सूचकाकों में इसकी स्थिति बहुत खेदजनक हैं और इस स्थिति में सुधार करने
के लिये बहुत अधिक प्रयास करने की जरुरत हैं।
लैंगिक असमानता सांख्यिकी
लिंग
असमानता विभिन्न तरीकों में प्रकट होता है और भारत में जो सूचकांक सबसे अधिक
चिन्ता का विषय हैं वो निम्न हैं:
- कन्या भ्रूण हत्या
- कन्या बाल-हत्या
- बच्चों का लिंग अनुपात (0
से 6 वर्ग):
919
- लिंग अनुपात: 943
- महिला साक्षरता: 46%
- मातृ मृत्यु दर: 1,00,000
जीवित जन्मों प्रति 178
लोगों की मृत्यु।
ये ऊपर
वर्णित सभी महत्वपूर्ण सूचकांक में से कुछ सूचकांक हैं जो देश में महिलाओं की
स्थिति को प्रदर्शित करते हैं।
कन्याभ्रूण
हत्या और बाल-कन्या हत्या सबसे अमानवीय कार्य हैं और ये बहुत शर्मनाक हैं कि ये
सभी प्रथाएं भारत में बड़े पैमाने पर प्रचलित हैं।
ये आँकड़े
प्रदर्शित करते हैं कि कानूनों अथार्त् प्रसव-पूर्व निदान की तकनीक (विनियमन और
दुरूपयोग निवारण) अधिनियम 1994, के बावजूद
आज भी लिंग परीक्षण के बाद गर्भपात अपने उच्च स्तर पर हैं। मैकफर्सन द्वारा किये
गये एक शोध के आँकड़े प्रदर्शित करते हैं कि भारत में लगभग 1,00,000 अवैध गर्भपात हर साल केवल इसलिये कराये जाते हैं क्योंकि गर्भ
में पल रहा भ्रूण लड़की का भ्रूण होता हैं।
इसके कारण, 2011 की जनगणना के दौरान एक खतरनाक प्रवृत्ति की सूचना सामने आयी
कि बाल-लिंग अनुपात (0
से 6 साल की आयु वर्ग वाले बच्चों का लिंग-अनुपात) 919 हैं जो पिछली जनगणना 2001 से 8 अंक कम था। ये आँकड़े प्रदर्शित करते हैं कि लिंग परीक्षण के
बाद गर्भपातों की संख्या में वृद्धि हुई हैं।
जहाँ तक
पूरे लिंग-अनुपात की बात हैं, 2011 की जनगणना
के दौरान ये 943 था जो 2001 की 933
की तुलना में 10 अंक आगे बढ़ा हैं। यद्यपि ये एक अच्छा संकेत हैं कि पूरे
लिंग-अनुपात में वृद्धि हुई हैं लेकिन ये अभी भी पूरी तरह से महिलाओं के पक्ष में
नहीं हैं।
2011
के अनुसार पुरुषों की 82.14% साक्षरता की तुलना में महिला साक्षरता 65.46% हैं। ये अन्तराल भारत में महिलाओं के साथ व्यापक असमानता को
प्रदर्शित करता हैं साथ ही ये भी इंगित करता हैं कि भारतीय महिलाओं की शिक्षा की
ओर ज्यादा ध्यान नहीं दे रहे हैं।
ये सभी
संकेतक लिंग समानता और महिलाओं के मूलभूत अधिकारों की ओर से भारत की निराजनक
स्थिति को प्रदर्शित करते हैं। इसलिये प्रत्येक साल भारतीय सरकार महिलाओं के
सशक्तिकरण के लिये विभिन्न योजनाओं और कार्यक्रमों को लागू करती हैं ताकि इनका लाभ
महिलाओं को प्राप्त हो लेकिन जमीनी हकीकत ये कि इतने कार्यक्रमों के लागू किये
जाने के बाद भी महिलाओं की स्थिति में कोई खास परिवर्तन नजर नहीं आता। ये परिवर्तन
तभी दिखायी देंगें जब समाज में लोगों के मन में पहले से बैठे हुये विचार और
रुढ़िवादिता को बदला जायेगा, जब समाज
खुद लड़के और लड़कियों में कोई फर्क नहीं करेगा और लड़कियों को कोई बोझ नहीं
समझेगा।
लैंगिक असमानता के खिलाफ कानूनी और संवैधानिक सुरक्षा उपाय
लिंग
असमानता को दूर करने के लिये भारतीय संविधान ने अनेक सकारात्मक कदम उठाये हैं; संविधान की प्रस्तावना हर किसी के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्राप्त करने के लक्ष्यों के साथ ही
अपने सभी नागरिकों के लिए स्तर की समानता और अवसर प्रदान करने के बारे में बात
करती है। इसी क्रम में महिलाओं को भी वोट डालने का अधिकार प्राप्त हैं। संविधान का
अनुच्छेद 15 भी लिंग, धर्म, जाति और जन्म स्थान पर अलग होने के आधार पर किये जाने वाले
सभी भेदभावों को निषेध करता हैं। अनुच्छेद 15(3) किसी भी
राज्य को बच्चों और महिलाओं के लिये विशेष प्रावधान बनाने के लिये अधिकारित करता
हैं। इसके अलावा, राज्य के नीति निदेशक तत्व भी ऐसे बहुत
से प्रावधानों को प्रदान करता हैं जो महिलाओं की सुरक्षा और भेदभाव से रक्षा करने
में मदद करता हैं।
इन
संवैधानिक सुरक्षा उपायों के अलावा, विभिन्न
सुरक्षात्मक विधान भी महिलाओं के शोषण को खत्म करने और समाज में उन्हें बराबरी का
दर्जा देने के लिए संसद द्वारा पारित किये गये है। उदाहरण के लिये, सती प्रथा उन्मूलन अधिनियम 1987 के अन्तर्गत सती प्रथा को समाप्त करने के साथ ही इस अमानवीयकृत
कार्य को दंड़नीय अपराध बनाया गया। दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961, दहेज की प्रथा को खत्म करने के लिए; विशेष विवाह अधिनियम, 1954 अंतर्जातीय
या अंतर-धर्म से शादी करने वाले विवाहित जोड़ों के विवाह को सही दर्जा देने के लिए; प्रसव पूर्व निदान तकनीक (विनियमन और दुरूपयोग निवारण) विधेयक
(कन्या भ्रूण हत्या और कई और इस तरह के कृत्यों को रोकने के लिए 1991 में संसद में पेश किया गया, 1994 में पारित किया है।) इलके अलावा संसद समय-समय पर समाज की बदलती हुई
परिस्थितियों के अनुसार लागू नियमों में महिलाओं की सुरक्षा को ध्यान में रखते
हुये बहुत से सुधार करती रहती हैं, उदाहरण के
लिये, भारतीय दंड संहिता 1860 में धारा 304- बी. को
दहेज-केस दुल्हन की मृत्यु या दुल्हन को जलाकर मार देने के कुकृत्य को विशेष अपराध
बनाकर आजीवन कारावास का दंड़ देने का प्रावधान किया गया हैं।
भारत में
महिलाओं के लिये बहुत से संवैधानिक सुरक्षात्मक उपाय बनाये हैं पर जमीनी हकीकत
इससे बहुत अलग हैं। इन सभी प्रावधानों के बावजूद देश में महिलाएं के साथ आज भी
द्वितीय श्रेणी के नागरिक के रुप में व्यवहार किया जाता हैं, पुरुष उन्हें अपनी कामुक इच्छाओं की पूर्ति करने का माध्यम
मानते हैं, महिलाओं के साथ अत्याचार अपने खतरनाक
स्तर पर हैं, दहेज प्रथा आज भी प्रचलन में हैं, कन्या भ्रूण हत्या हमारे घरों में एक आदर्श है।
हम लैंगिक असमानता कैसे समाप्त कर सकते हैं
संवैधानिक
सूची के साथ-साथ सभी प्रकार के भेदभाव या असमानताएं चलती रहेंगी लेकिन वास्तिविक
बदलाव तो तभी संभव हैं जब पुरुषों की सोच को बदला जाये। ये सोच जब बदलेगी तब
मानवता का एक प्रकार पुरुष महिला के साथ समानता का व्यवहार करना शुरु कर दे न कि
उन्हें अपना अधीनस्थ समझे। यहाँ तक कि सिर्फ आदमियों को ही नहीं बल्कि महिलाओं को
भी औज की संस्कृति के अनुसार अपनी पुरानी रुढ़िवादी सोच बदलनी होगी और जानना होगा
कि वो भी इस शोषणकारी पितृसत्तात्मक व्यवस्था का एक अंग बन गयी हैं और पुरुषों को खुद
पर हावी होने में सहायता कर रहीं हैं।
इसलिए, महिला सशक्तिकरण की आवश्यकता हैं, जहाँ महिलाएं आर्थिक रुप से स्वतंत्र और आत्मनिर्भर बन सकती
हैं, जहाँ वो अपने डर से लड़कर दुनिया में
भयमुक्त होकर जा सकती हैं, जहाँ वो
अपने अधिकारों को पुरुषों की जेब में से निकाल सकती हैं और इसके लिये उन्हें किसी
से पूछने की भी आवश्यकता नहीं हैं, जहाँ वो
अच्छी शिक्षा प्राप्त करके अच्छा भविष्य व अपनी सम्पति की स्वंय मालिक बन सकती हैं
और इन सबसे से भी ऊपर उन्हें मनु के समय से लगाई गयी सीमाओं से बाहर निकलकर चुनाव
करने व अपने निर्णय खुद लेने की स्वतंत्रता मिलती हैं।
हम केवल
उम्मीद कर सकते हैं कि हमारा सहभागी लोकतंत्र, आने वाले
समय में और पुरुषों और महिलाओं के सामूहिक प्रयासों से लिंग असमानता की समस्या का
समाधान ढूँढने में सक्षम हो जायेंगा और हम सभी को सोच व कार्यों की वास्तविकता के
साथ में सपने में पोषित आधुनिक समाज की और ले जायेगा।
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3. जीवन में शिक्षा का महत्व: Importance of Education in Life
शिक्षा
का महत्त्व
ऑक्सफोर्ड अंग्रेजी डिक्शनरी के
अनुसार, ज्ञान का अर्थ है शिक्षा या अनुभव
के माध्यम से तथ्य, सूचना
और कौशल प्राप्त करना। ज्ञान किसी विषय के सैद्धांतिक या व्यावहारिक समझ का गठन
करता है। मानव समाज के वंशज, वानर
व् अन्य जानवरों से केवल ज्ञान और
उपयोग के कारण अलग हैं। ज्ञान केवल शिक्षा के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है।
यह बिना कहे ही जाना जा सकता है कि समानता
बनाने तथा आर्थिक स्थिति के आधार पर बाधाओं तथा भेदभाव को दूर करने के लिए शिक्षा
बहुत आवश्यक है। राष्ट्र की प्रगति और विकास सभी नागरिकों की शिक्षा के अधिकार की
उपलब्धता पर निर्भर करता है। एक पाकिस्तानी स्कूल छात्रा मलाला यूसुफजई को शिक्षा
के अधिकार के लिए तालिबान से धमकी मिली थी। तालिबान में उसके सिर पर गोली मार दी
गई थी लेकिन इसके बाद भी जीवित रही और तब से वह मानव अधिकार, महिलाओं के अधिकार और शिक्षा के
अधिकार के लिए एक वैश्विक पक्षधर बन गई है।
व्यावसायिक कौशल के माध्यम से
जीविका चलाने की योग्यता के अलावा, शिक्षा
के परिणाम बहुत भिन्न हैं जिनमें निम्न शामिल हैं –
·
एक समाज की सभ्यता के माध्यम से लोकतंत्र का संवर्धन होगा, जो बदले में पूरे देश के
सामंजस्यपूर्ण विकास में मदद करेगा।
·
विश्व में शांति उत्पन्न करना।
·
व्यक्तिगत स्तर पर, शिक्षा – परिपक्वता और व्यक्तित्व के एकीकरण में मदद करती है, जिससे व्यवहार के सही
संशोधन और संपूर्ण जीवन के साथ एक मानवीय सौदे में सम्पूर्ण मदद मिलती है।
वास्तव में, यह कहा गया है कि “जीवन की कीमत को इस प्रकार मापा जा सकता कि कितनी बार आपकी
आत्मा ने आपको अंदर से झझकोरा है।” यह शिक्षा
ही है जो किसी के जीवन में हलचल मचा सकती है।
शिक्षा
के विभिन्न प्रकार
स्कूल और कॉलेज की शिक्षा के अलावा, शिक्षा निम्न का गठन करती है –
प्रौढ़ साक्षरता – निरक्षरता किसी भी समाज के लिए
अभिशाप है। शिक्षा सभी बुराई को दूर करने में मदद करती है और इस प्रकार पूरी
दुनिया में सरकारी केंद्रों में स्थापित करने के माध्यम से वयस्कों को बुनियादी
शिक्षा देकर इस बुराई को दूर करने की कोशिश की जा रही है।
महिला शिक्षा – सही कहा गया है कि जब आप “एक महिला को शिक्षा देकर शिक्षित करते हैं तो आप एक पूर्ण
परिवार को शिक्षित करते हैं।” समाज
में जहाँ महिलाओं को 20 वीं
सदी के अंत तक शिक्षा से वंचित रखा गया है, वहीं
अब महिलाओं को शिक्षित करने के लिए विशेष अभियान और योजनाएं आयोजित की जा रही हैं, उन्हें आगे लाने के लिए और समाज के
समग्र विकास की सुविधा प्रदान की जा रही हैं।
भारत
में शिक्षा
अति प्राचीन काल से, भारत समाज के पूर्ण विकास के लिए
शिक्षा के महत्व के प्रति जागरूक रहा है। वैदिक युग से, गुरुकुल में पीढ़ी दर पीढ़ी से
शिक्षा प्रदान की जा रही है। यह शिक्षा केवल वैदिक मंत्रों का एकमात्र ज्ञान नहीं
था बल्कि छात्रों को एक पूर्ण व्यक्ति बनाने के लिए आवश्यक व्यावसायिक प्रशिक्षण
भी दिया गया था। इस तरह क्षत्रियों ने युद्ध की कला सीख ली, ब्राह्मणों ने ज्ञान देने की कला
सीख ली, वैश्य जाति वाणिज्य और अन्य विशिष्ट
व्यावसायिक पाठ्यक्रमों को सीखकर आगे बढ़ गयी। हालांकि, शूद्र जाति शिक्षा से वंचित रही, जो समाज में सबसे नीची मानी जाती
है।
इस कमी को ठीक करने के लिए और पूरे
समाज के समावेशी विकास को ध्यान में रखते हुए, आरक्षण योजना चलाई गई जिसमें नीची जातियों को नि:शुल्क शिक्षा
प्रदान की जाती है, साथ
ही कॉलेजों और नौकरियों में सीटों के आरक्षण के साथ 1900 के प्रारंभ और बाद में भारत के
संविधान में उसको सही स्थान मिला है।
वर्तमान युग में, सभी के लिए समान अवसर के माध्यम से
समाज के समग्र विकास की आवश्यकता को पहचानने के लिए, सरकार ने 6 और 14 वर्ष के बीच की आयु वर्ग वाले सभी
बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की सुविधा के लिए भारतीय संविधान में
विभिन्न लेख शामिल किए हैं।
आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों से
बच्चों को शिक्षा के लिए स्कूल भेजें। भारत सरकार द्वारा मध्यान्ह भोजन योजना में
पौष्टिक भोजन प्रदान करके बच्चों को प्रोत्साहित किया गया है। यह कार्यक्रम सरकार, सरकारी सहायता प्राप्त स्थानीय
निकाय, शिक्षा गारंटी योजना और वैकल्पिक
अभिनव शिक्षा केन्द्र, मदरसा
और स्कूलों या प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों को निःशुल्क भोजन श्रम
मंत्रालय द्वारा संचालित किया जाता है। इस योजना ने सरकारी स्कूलों में नामांकन, उपस्थिति और आर्थिक रूप से पिछड़े
वर्गों की अवधारण को बढ़ाने में मदद की है।
एक अन्य महत्वपूर्ण पहल में, सरकार ने लड़कियों की शिक्षा के लिए
आर्थिक सहायता और मुफ्त शिक्षा की भी घोषणा की है। इस योजना से एकल परिवार की सभी
लड़कियों को विद्यालय में उच्च स्तर पर मुफ्त शिक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से
प्रोत्साहित किया गया है।
हालांकि, उच्च शिक्षा के लिए छात्रों को
नामांकन के क्षेत्र में भारत को एक समस्या का सामना करना पड़ रहा है। नामांकन की
कम दर का प्रमुख कारण महंगी फीस और संबंधता की कमी है। इस अवांछित परिदृश्य को बदलने
के लिए बड़े समाधान आवश्यक हैं, उच्च
शिक्षा को विस्तारित करने के लिए कुछ सुझाव इस प्रकार हैं –
·
पिछड़े वर्गों को आरक्षण नीति के माध्यम से प्रोत्साहित किया गया
है, गरीबों
और अमीरों के बीच असमानताओं को दूर करने के लिए सरकार द्वारा सकारात्मक कदम उठाए
जाने हैं।
·
उच्च शिक्षा प्रासंगिकता की शिक्षा होनी चाहिए। वर्तमान युग में, असंख्य स्नातक डिग्री धारक
हैं जो बेरोजगार रहते हैं। यदि व्यावसायिक प्रशिक्षण को पाठ्यक्रम में शामिल किया
जाए और उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के बाद प्राप्त उच्च शिक्षा या अपनी पसंद के
कैरियर का विकल्प चुनने वाले छात्रों को व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाए तो
बेरोजगारी के खतरे को कम किया जा सकता है।
निष्कर्ष
शिक्षा एक व्यक्ति को अपनी क्षमता
का पता लगाने में मदद करती है, जो
बदले में एक मजबूत और एकजुट समाज को बढ़ावा देती है। इसका उपयोग करने से इनकार
करना किसी भी व्यक्ति को एक पूर्ण इंसान बनने में बाधा उत्पन्न कर सकता है। परिवार, समुदाय और राज्य को बड़े स्तर पर ले
जाने के लिए मानव समाज के हर स्तर पर शिक्षा का महत्व बहुत आवश्यक है।
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4. भारत में आरक्षण की
नीति पर निबंध
Reservation Policy in India Essay in Hindi
शैक्षणिक संस्थानों, अस्पतालों, सरकारी नौकरियों और
कई अन्य जगह लोगों में प्रवेश या चयन के लिए भारत में वित्तीय स्थिति, लिंग, जाति इत्यादि के आधार
पर विभिन्न प्रकार की आरक्षण नीतियां मौजूद हैं। हालाँकि वित्तीय स्थिति, लिंग, खेल आधारित आरक्षण को
आसानी से समझा जा सकता है, हमें
वास्तव में समझने की आवश्यकता जाति आधारित आरक्षण नीति है जो सामाजिक रूप से
भेदभाव से परेशान लोगों के कुछ समूहों के शैक्षिक और आर्थिक हितों की रक्षा के लिए
बनाई गई थी। आजादी के बाद से ही किसी व्यक्ति की जाति के आधार पर आरक्षण पर
अत्यधिक बहस होती रही है। जिस उद्देश्य के लिए जाति आधारित आरक्षण पेश किया गया था, वह अपना महत्व खो रहा
है और वोट बैंक की राजनीति से प्रतिस्थापित हो रहा है जिसने विभिन्न जाति समूहों
के आरक्षण प्राप्त करने और अन्य समूहों की तुलना में अधिक विशेषाधिकार प्राप्त
करने के लिए हिंसा को जन्म दिया है।
आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्लूएस) के लिए आरक्षण उन
लोगों के लिए बहुत जरूरी है जो वित्तीय रूप से बहुत कमजोर हैं और जो विभिन्न
सेवाओं के लिए आवश्यक धन का भुगतान नहीं कर सकते हैं। महिलाओं और लड़कियों के लिए
लिंग आधारित आरक्षण राष्ट्र निर्माण प्रक्रिया में भाग लेने के लिए उन्हें सशक्त
बनाने और प्रोत्साहित करने के लिए है। आरक्षण भारत में कई राजनेताओं के लिए वोट
बैंकों में बदल गया है जो नियमित रूप से अपने भाषणों में विशिष्ट जाति समूहों को
लुभाने का प्रयास करते हैं ताकि उन्हें सरकार के तहत आरक्षण और सुविधाओं का अधिक
प्रतिशत दिया जा सके। इससे निम्न वर्ग के लोगों द्वारा सामना किए जाने वाले
सामाजिक अन्याय को खत्म करने में मदद नहीं मिलती है, लेकिन उनके द्वारा
सहे गए भेदभाव को और भी अधिक बढ़ावा मिलता है। पहले उन लोगों के कुछ समूह थे जो आज
भी हैं जो दूसरों द्वारा भेदभाव के शिकार बनते थे, और वे दूसरे लोग खुद
को उच्च वर्ग के लोगों के रूप में बताया करते हैं। उन्होंने सोचा कि निचले वर्ग के
लोगों का काम उनकी सेवा करना है। तथाकथित उच्च वर्ग के लोगों के बीच इस दुष्ट
मानसिकता ने सरकार को एक समाधान प्रदान करने के लिए मजबूर किया जो भेदभाव किये
जाने वाले समूहों को सामाजिक अन्याय से बचा सके। उनके हितों की रक्षा के लिए, सरकार ने भारत में
जाति-आधारित आरक्षण प्रणाली की शुरुआत की जिसमें सरकारी नौकरियों, स्कूलों, कॉलेजों में अनुसूचित
जनजाति (एसटी), अनुसूचित
जाति (एससी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लोगों के लिए आरक्षण शामिल है। तब से
ही ओबीसी आरक्षण का गंभीर रूप से दुरुपयोग हुआ है जिसमे अधिक से अधिक जाति समूह
ओबीसी में शामिल होने की मांग करते हैं।
पिछड़े समूहों के लिए आरक्षित सीटों का प्रतिशत प्रारंभ
में कम था और ऐसा माना जाता था कि आरक्षण नीति उन्हें अंततः समाज में अन्य
अनारक्षित समूहों के बराबर बनने में मदद करेगी, लेकिन समय के साथ, निम्न वर्ग के लोगों
के लिए आरक्षण का प्रतिशत काफी बढ़ गया है। समाज के कुछ वंचित वर्गों के लिए अब
पचास प्रतिशत सीटें आरक्षित हैं। अनारक्षित उम्मीदवारों या सामान्य श्रेणी के
व्यक्तियों के लिए केवल पचास प्रतिशत या उससे भी कम सीटें ही रह गई है। सामान्य
श्रेणी के उम्मीदवारों को अब भेदभाव महसूस होता है क्योंकि उन्हें अपनी योग्य
सीटों को पाने के लिए वास्तव में कड़ी मेहनत करनी होती है, जो आरक्षित श्रेणी के
उम्मीदवार अपेक्षाकृत आसानी से प्राप्त कर सकते हैं। क्या आरक्षण नीति ने वास्तव
में समाज के वंचित वर्गों की सहायता की है? ऐसे कई उदाहरण हैं जो
इंगित करते हैं कि वे अभी भी समाज में सामाजिक अन्याय का सामना कर रहे हैं। तो, वास्तव में समस्या
कहां है?
आरक्षण विभिन्न
समूहों को एकजुट करने की बजाय सबको विभाजित करने का काम ज्यादा कर रहा है जहाँ कई
समूहों के लोग आरक्षण नीति में शामिल होने के लिए हिंसा तक का सहारा ले रहे हैं।
आरक्षण के लिए आवश्यक एकमात्र मानदंड एक व्यक्ति की वित्तीय स्थिति ही होनी चाहिए।
जाति आधारित आरक्षण से गरीबों को सामान्य रूप से वास्तव में मदद नहीं मिला है।
अमीर अमीर हो रहे हैं और गरीबों को अभी भी सड़क के किनारे भीख मांगना पड़ रहा है।
एक जाति के लोगों के समूह में सभी एक ही वित्तीय स्थिति के साथ नहीं हैं। कुछ
व्यक्ति एक ही समूह के अन्य लोगों की तुलना में अधिक विशेषाधिकार प्राप्त होते
हैं। हमें उन अवसरों को पाने में वंचित लोगों की मदद करनी है जो अवसर उन्हें मिलना
चाहिए, चाहे
उनकी जाति कोई भी हो। भारत में आरक्षण नीति पूरी तरह से किसी व्यक्ति की आर्थिक
स्थिति के आधार पर होनी चाहिए।
आरक्षण-नीति
यदि आरक्षण का
उद्द्देश्य देश के संसाधनों, अवसरों एवं शासन
प्रणाली में समाज के प्रत्येक समूह की उपस्थिति सुनिश्चित करना है, तो यह बात अब निर्णायक
रूप से कही जा सकती है कि आरक्षण की मौजूदा प्रणाली असफल हो गई है। सामाजिक न्याय
का सिद्धान्त वास्तव में वहीं लागू हो सकता है, जहाँ समाज के नेतृत्व
वर्ग की नीयत स्वच्छ हो। विशिष्ट सामाजिक बनावट के कारण भारत जैसे देश में सामाजिक
न्याय के सिद्धान्त को जिस तरीके से लागू किया गया, उसमें तो उसे असफल होना
ही था। भारतीय संविधान में पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए विशेष प्रावधान का वर्णन
इस प्रकार है- अनुच्छेद 15 (समानता का मौलिक अधिकार) द्वारा, राज्य किसी नागरिक के
विरुद्ध केवल धर्म, मूल
वंश, जाति, लिंग जन्म-स्थान या
इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा, लेकिन अनुच्छेद 15
(4) के
अनुसार इस अनुच्छेद की या अनुच्छेद 29 के खण्ड (2) की कोई बात राज्य को
शौक्षिक अथवा सामाजिक दृष्टि से पिछड़े नागरिकों के किन्हीं वर्गों की अथवा
अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के लिए कोई विशेष व्यवस्था बनाने से नहीं रोक सकती, अर्थात राज्य चाहे तो
इनके उत्थान के लिए आरक्षण या शुल्क में कमी अथवा अन्य उपलब्ध कर सकती है जिसे कोई
भी व्यक्ति उसकी विधि-मान्यता पर हस्तक्षेप नहीं कर सकता कि यह वर्ग-विभेद उत्पन्न
करते हैं।
स्वतन्त्रता-प्राप्ति
के समय से ही भारत में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए सरकारी नौकरियों एवं
शिक्षा में आरक्षण लागू है। मण्डल आयोग की संस्तुतियों के लागु होने के बाद 1993
से
ही अन्य पिछड़े वर्गों के लिए नौकरियों में आरक्षण लागू है। 2006
के
बाद से केन्द्र सरकार के शिक्षण संस्थानों में भी अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण
लागू हो गया। महिलाओं को भी विभिन्न क्षेत्रों में आरक्षण की सुविधा का लाभ मिल
रहा है। कुल मिलाकर समाज के अत्यधिक बड़े तबके को आरक्षण की सुभिधाओं का लाभ
प्राप्त हो रहा है। लेकिन इस आरक्षण-नीति का परिणाम क्या निकला ? अनुसूचित जातियों एवं
जनजातियों के लिए आरक्षण लागू होने के लगभग 62 वर्ष बीत चुके हैं और
मण्डल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के भी लगभग दो दशक पूरे हो चुके है लेकिन क्या
सम्बन्धित पक्षों को उसका पर्याप्त फायदा मिला ?
सत्ता
एवं अपने निहित स्वार्थों के कारण आरक्षण की नीति की समीक्षा नहीं करती। अन्य
पिछड़े वर्गों के लिए मौजूद आरक्षण की समीक्षा तो सम्भव भी नहीं है क्योंकि इससे सम्बन्ध
वास्तविक आँकड़े का पता ही नहीं है। चूँकि आँकड़े नहीं है, इसलिए योजनाओं का कोई लक्ष्य भी नहीं है। आँकड़े के अभाव
में इस देश के संसाधनों, अवसरों
और राजकाज में किस जाति और जाति समूह की कितनी हिस्सेदारी है, इसका तुलनात्मक अध्ययन ही सम्भव नहीं है। सैम्पल सर्वे
(नमूना सर्वेक्षण) के आँकड़े इसमें कुछ मदद कर सकते है, लेकिन इतने बड़े देश में चार-पाँच हजार के नमूना
सर्वेक्षण से ठोस नतीजे नहीं निकाले जा सकते। सरकार ने 104 वें संविधान संशोधन के द्वारा देश में सरकारी विद्यालयों
के साथ-साथ गैर सहायता प्राप्त निजी शिक्षण संस्थानों में भी अनुसूचित
जातियों/जनजातियों एवं अन्य पिछड़े वर्गों के अभ्यर्थियों को आरक्षण का लाभ प्रदान
कर दिया है।
सरकार
के इस निर्णय का समर्थन और विरोध दोनों हुआ। वास्तव में निजी क्षेत्रों में आरक्षण
लागू होना अत्यधिक कठिन है क्योंकि निजी क्षेत्र लाभ से समझौता नहीं कर सकते, यदि गुणवत्ता प्रभावित
होने से ऐसा होता हो। पिछले कई वर्षों से आरक्षण के नाम पर राजनीति हो रही है, आए दिनों कोई-न कोई
वर्ग अपने लिए आरक्षण की माँग कर बैठता है एवं इसके लिए आन्दोलन करने पर उतारू हो
जाता है। इस तरह देश में अस्थिरता एवं अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
आर्थिक एवं सामजिक पिछड़ेपन के आधार पर निम्न तबके के लोगों के उत्थान के लिए
उन्हें सेवा एवं शिक्षा में आरक्षण प्रदान करना उचित है, लेकिन जाति एवं धर्म के
आधार पर तो आरक्षण को कतई भी उचित नहीं कहा जा सकता।
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